दोस्तो, संस्कृति सरोकार के इस मंच पर इस बार प्रस्तुत हैं,
कवि कुशेश्वर की कविताएँ ।
(1)
आओ बंधु !
आओ बंधु
हाथ मिलाएं
सुलगाएं हाथों की ठंडक
होठों पे सूरज ले आएं
तन से मिला लें तन
मौसम फागुन हो जाए
नैनों से मिला लें नैन
मन जामुन हो जाए
हम दोनों को छूकर
गुज़रे जो समीर
हर घर के आँगन को
कर दे आम की बगिया
गली-गली में नाचे मोर
सुबह-सबेरे देखें मंजरी
शाम का टपके आम
आओ बंधु, हाथ मिलाएं
सुलगाएं हाथों की ठंडक।
(2)
गड़े मुर्दे
गड़े मुर्दे
नए और पुराने
उखाड़े जा रहे हैं फिर से।
पुरातत्ववेत्ता का मानना है
मुर्दों पर मिली चादर की उम्र से
तय की जा सकेगी स्वर्ग की दूरी
धरती पर चाहे जितने
जैसे मतभेद हों
आकाश और स्वर्ग के मामले में
‘आवाज़ दो हम एक हैं।’
खुद को मुर्दों से जोड़ने की ललक
हर दरवाज़े पर देखी जाती है
इस घोषणा-पत्र के साथ -
‘एक क़ब्र हमारे आँगन में भी है
जहाँ मुर्दे की तलाश जारी है।’
कुछ लोग
मकान की नींव में मिली राख लिए
पंक्तिबद्ध खड़े हैं प्रयोगशाला के सामने
शायद किसी मुर्दे का जीवाणु मिल जाए।
कुछ लोग
असहायों को ज़िंदा दफ़्न करने में जुटे हैं
कि आने वाले कल में
वे उखाड़ सकें गड़े मुर्दे।
(3)
लहराने का कारण
लहराने का कारण
झंडे
बहुत ऊँचे होकर
इसलिए लहराते हैं
क्योंकि हवाओं की शह मिलती है
और डंडे का सहारा पाते हैं।
बहुत ऊँचे होकर
इसलिए लहराते हैं
क्योंकि हवाओं की शह मिलती है
और डंडे का सहारा पाते हैं।
(4)
आईने का सच
लोग कहते हैं -
आईना सच बोलता है
मगर यह भूल जाते है्
कि वह बाएं को दायां
और दाएं को बायां दिखाता है।
आईना सच बोलता है
मगर यह भूल जाते है्
कि वह बाएं को दायां
और दाएं को बायां दिखाता है।
(5)
अछूत
वह जब भी मुझसे मिलता
कंधों पर उसके होता
खुशियों से भरा हिमालय
ललाट पर होता नालन्दा का सूरज
होठों पर होती
गंगा-जमुना की अमर कहानी
बड़े जतन से दिखलाता वह
एक हाथ में इतिहास
दूसरे में भूगोल का मेला
वह था मानता
मैं हूँ उसका ऐसा साथी
जो भूगोल से बाहर निकल
रच रहा था नई दुनिया का विश्वास
किंतु अचानक एक दिन न जाने कैसे
फटे-पुराने शब्द-कोश से
एक शब्द छिटक कर कहीं आ गिरा
वह ठिठक गया बंद घड़ी सा
गिर गया हिमालय उसके कंधे से
गंगा-जमुना में आ गई बाढ़
टूटे कई किनारे
डूब गया था उसका सूरज
सागर में उठे झाग की हद तक
वह फेनिल हो उठा था
आख़िर था वह कौन सा शब्द
जो सूरज, चाँद, तारों के पास नहीं था
समुद्र, नदी, झरने, पेड़-पौधों को
छू तक नहीं रहा था
न फूलों के रंग, न हवाओं के संग
आख़िर उस ‘अछूत’ शब्द में
ऐसा क्या था जो आकाश से टपका नहीं
ज़मीन से उगा नहीं
मेरे चेहरे पर भी लिखा नहीं था
मगर वह उसे लगातार पढ़ रहा था !
परिचय
जन्म : 30 जनवरी 1949 दरभंगा के खैरा गाँव में। स्नातक डिग्री के बाद आकाशवाणी कोलकाता में सामयिक उद्घोषक एवं एफ. एम. प्रेजेंटर तथा साहित्य एवं सांस्कृतिक रेडियो मासिक मैगज़ीन का संकलन व संपादन। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं एवं कविता, कहानी, नाटक प्रकाशित।
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