सुस्वागतम् - जी आयां नूं

"संस्कृति सरोकार" पर पधारने हेतु आपका आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु'

रविवार, जुलाई 10, 2011

हर दिल अज़ीज़ एक रूमानी शायर - क़तील शिफ़ाई ।

     
कल शायर क़तील शिफाई की 10वी पुण्य तिथि है। 24 दिसंबर, 1919 को अविभाजित हिंदुस्तान के हजारा(अब पाकिस्तान) में जन्मे थे क़तील शिफाई उर्फ़ औरंगजेब खान। वे क़तील इसलिए थे कि उनका क़त्ल हो गया था यानी इश्क में फ़ना हो जाना और शिफाई इसलिए कि व अपने उस्ताद शायर शिफा कानपुरी से अपनी शायरी और कलाम पर मार्गदर्शन लिया करते थे। (11 जुलाई 2001) को उनका इंतकाल हुआ। संस्कृति सरोकार परिवार की तरफ से उन्हें  श्रद्धासुमन !



   1)    


अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ...

अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ,
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ।
कोई आंसू तेरे दामन पर गिराकर,
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ।
थक गया में करते-करते याद तुझको,
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ।
छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा,
रौशनी दो घर जलाना चाहता हूँ।
आखिरी हिचकी तेरे जानों पा आये,
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ।  
                                                  



2)






सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं




सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं


लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं

बिखरा पडा है तेरे ही घर में तेरा वजूद


बेकार महफिलों में तुझे ढूंढता हूँ मैं

खुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़


अपने बदन की कब्र में कबसे गड़ा हूँ मैं


किस-किसका नाम लू ज़बान पर की तेरे साथ

हर रोज़ एक शख्स नया देखता हूँ मैं

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम

दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं
                      ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रकीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं
जागा हुआ ज़मीर वो आईना है 'क़तील'
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं



3)


                     प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं


प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं
कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं

बेस्र्ख़ी इस से बड़ी और भला क्या होगी
एक मु त से हमें उस ने सताया भी नहीं

रोज़ आता है दर-ए-दिल पे वो दस्तक देने
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं

सुन लिया कैसे ख़ुदा जाने ज़माने भर ने
वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं


तुम तो शायर हो ‘क़तील’ और वो इक आम सा शख्स़
उस ने चाहा भी तुझे और जताया भी नहीं।



                                                              4)     

ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ,


ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ,
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा ।

तू मिला है तो ये एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोडी है ,
इक ज़रा सा गम-ए-दौराँ का भी हक़ है जिस पर
मैं ने वो साँस भी तेरे लिए रख छोडी है ,
तुझ पे हो जाउंगा क़ुर्बान तुझे चाहूँगा
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा ।

अपने जज़्बात में नगमात रचाने के लिए
मैं ने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे ,
मैं तसव्वुर भी जुदाई का भला कैसे करूँ
मैं ने क़िस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे ,
प्यार का बन के निगेहबान तुझे चाहूँगा
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा ।

तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों में चिराग
जब भी तू आए जगाता हुआ जादू आए ,
तुझको छू लूँ तो फिर ए जान-ए-तमन्ना
मुझको देर तक अपने बदन से तेरी खुश्बू आए ,
तू बहारों का है उनवान तुझे चाहुउँगा
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा ।


प्रस्तुति - नीलम अंशु

)(    




1 टिप्पणी:

  1. थक गया में करते-करते याद तुझको,

    अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ।
    लाजवाब!
    विनम्र श्रद्धांजलि।

    जवाब देंहटाएं