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शुक्रवार, नवंबर 01, 2013

न तुम समझे, न हम

नीलम शर्मा अंशु

रश्मि सोच रही थी आख़िर ऐसा क्या हुआ ? बहुत ज़ोर डालने पर भी यह समझ नहीं आया कि ऐसा क्योंकर हुआ। दिवाकर ने अचानक इस तरह पैंतरा क्यों बदल लिया? कैसे कर पाया वह ऐसा?
      करना तो दूर, वह तो सोच भी नहीं सकती। अचानक क्या हो गया था उसे। अपने ही मन को तरजीह देने लगा था वह। आज मेरा मन नहीं करता। मेरा मन नहीं चाह रहा वगैरह, वगैरह। उसके मन की चाहत के समक्ष रश्मि के मन की चाहत कोई मायने न रखती नज़र आती। स्वाभिमान तो दोनों में कूट-कूट कर भरा हुआ था। रश्मि ने कभी अपने स्वाभिमान को सर उठाने न दिया। हमेशा उसी की इच्छा को तरजीह दी, अपनी इच्छा का गला घोंटा। उसे लगता दोस्ती में अहं नाम की चीज़ कभी आड़े नहीं आनी चाहिए।
      कभी-कभी रश्मि को लगता कि दिवाकर का कहना सही था।  कहता कि मेरी पत्नी कहती है तुम्हें महिलाओं से बात-चीत का सलीका नहीं आता। तुम्हारे परिवार में बेटी, बहन, बुआ जो कभी नहीं रही। तुम महिलाओं को समझ ही नहीं पाते। 
     रश्मि से दोस्ती की बात सुनकर उसकी पत्नी राज बेहद खुश हुई थी। हैरानी सी भी हुई कि आम महिलाओं की तरह ईर्ष्या न होकर उसे खुशी ही हुई थी कि कोई ज़हीन महिला उसके शौहर की दोस्त भी है।  
      रश्मि को बहुत बुरा लगा था, जब होली जैसे त्योहार के दिन शाम को दिवाकर ने खुद ही तो मिलने का समय मुकर्रर किया था। फिर मिलने पर...... उसका रवैया पहेली सा लग रहा था। आते ही कहने लगा, जो बात करनी है जल्दी करो, मुझे ज़रूरी काम से कहीं जाना है। रश्मि अवाक कि दो घड़ी बातें भी न कीं और आते ही सुना दिया कि मुझे कहीं जाना है। रश्मि को यह तुक समझ नहीं आई। यदि आते ही तुरंत ज़रूरी काम से कहीं जाना था तो, फिर उस बुलाया ही क्यों था? क्या ज़रूरत थी? रश्मि को कितना शौक था होली का। सोचा था चलो इसी बहाने होली मना लेगी, वर्ना बरसों बीत गए थे उसे तो अबीर और गुलाल छुए हुए। दिवाकर की जल्दबाजी देख मन मसोस कर कह दिया, तुम्हें जल्दी है तो तुम निकल चलो, कहीं देर न हो जाए। और वह उसे वहां अकेली छोड़ आगे बढ़ गया। रश्मि हैरान। किसी तरह खुद को संभाला था उसने। बड़े मन से फूल ले गई थी कि फूलों से होली मनाएंगे और दिवाकर के जाते ही गुस्से में फूल फेंक मारे। भला फूलों का क्या कसूर ? किसी तरह खुद को घसीटते हुए घर तक आई थी। मन ही मन तय किया कि अब कुछ नहीं बचा दोनों के बीच। शीशे में एक बार दरार आ जाए तो फिर वो जुड़ता नहीं। जो भी हो, ये रिश्ता नहीं चलने वाला। पहली बार सोचा कि क्यों नरम पड़ जाती हूं दिवाकर के साथ। अपने स्वाभिमान को सर उठाने क्यों नहीं देती? जवाब मिलता, यही तो चाहत है, समर्पण है। चाहत का तकाज़ा है ये, जिसे आप दिल-ओ-जान से चाहो उसके प्रति कठोर कैसे हो सकते हैं आप। फिर वह आपका अपना करीबी ही क्यों न हो।
      नहीं, कठोर तो बनना ही पड़ेगा। और अब रश्मि ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह अपनी तरफ से खुद कोई संपर्क नहीं करेगी उससे।  और न चाहते हुए भी वह अपने इस दृढ़ निश्चय पर टिक भी पाई। लगभग दो हफ्तों तक दोनों के बीच संवादहीनता बनी रही। रश्मि ने खुद को रोके रखा किसी भी प्रकार के संवाद से।
      एक दिन उसने पाया कि मोबाइल में दिवाकर की एक मिस्ड कॉल है। खुद पर काबू रखते हुए रश्मि ने कॉलबैक नहीं किया।
      उसके आश्चर्य की सीमा न रही जब अगले ही दिन सुबह लगभग साढ़े ग्यारह बजे मोबाइल बज उठा। स्क्रीन पर दिवाकर का नंबर। हां या न की दुविधा में उसने हलो कह ही दिया।
      उधर से स्वर सुनाई दिया, हलो, कैसी हैं आप?’
      जी बहुत अच्छी। ऑल इज वेल, ऑलवेज़ वेल।
      लाठी चली है क्या कि बात करने की भी मनाही है।
      क्या पता चली हो....
      चलिए छोड़िए। आपके इलाके से गुज़र रहा था, सोचा फोन ही कर लूं।
      और फिर अगले ही एक घंटे में दोनों एक रेस्तरां में चाय की चुस्कियां ले रहे थे। सब कुछ भुला कर रश्मि फिर सहज हो आई थी।
      खुद दिवाकर ही इससे पहले दो-तीन बार कह चुका था कि देखो, हमें देख कर लगता ही नहीं कि कभी लड़े हों। इतने-इतने दिन बात-चीत बंद रही हो। कौन कहेगा इतने दिनों बाद मिले हैं।
      मानो इतने दिनों तक बात-चीत बंद रहना मामूली सी बात हो और रूटीन का हिस्सा हो उसके लिए। दफ्तरी व्यस्तता की सफाई देता। रश्मि का मानना था कि काम करने का कोई बहाना नहीं, काम न करने के सौ बहाने। दफ्तरी व्यस्तता के बाद घर नहीं जाता क्या आदमी, घर जाकर खाता-पीता, सोता नहीं। दूसरे ज़रूरी काम नहीं करता। क्या उससे फोन पर बात करने के लिए ही सारी व्यस्तताएं धरी हैं?
      तुम्हारा क्या भरोसा, कब फिर बिदक जाओ। अब रुलाओगे तो शहर छोड़ कर चली जाऊंगी। शहर ही क्यों देश भी छोड़ जाऊंगी। देखना तो दूर, तरस जाओगे आवाज़ तक सुनने को। इतनी दूर फोन करने में जेब की फ़िक्र किया करोगे।
हां बिलकुल सही सोचा था रश्मि ने। दस-बारह दिनों बाद फिर से वही मौका सामने आ खड़ा हुआ। दिवाकर का एक आलेख प्रकाशित हुआ था स्थानीय समाचार पत्र में। रश्मि ने सुबह-सुबह सरसरी नज़र से अखबार पढ़ा था। फिर रसोई के कामों में उलझ गई। अचानक ध्यान आया कि दिवाकर ने बातों-बातों में आलेख भेजे जाने की बात बताई थी। पुन: आधे घंटे बाद अखबार पलटा तो पाया कि आलेख उसमें था। सोचा दिवाकर को फोन करे। फिर सोचा अभी तक तो जनाब सो रहे होंगे। कल रात टुअर से देर रात लौटने की बात कही थी। अब रहने दिया जाए, उसे भी देर हो रही थी दफ्तर को। सोचा, दफ्तर पहुंच कर आराम से बात होगी लेकिन अभी वह रास्ते में ही थी कि दिवाकर का फोन आ गया।
      तुमने अखबार देखा आज का?
      हाँ, देखा।
      तो फोन क्यों नहीं किया?’
      रश्मि ने बगैर कुछ सोच-विचारे कह डाला हां, अखबार वालों को कोई धंधा तो है नहीं, जनाब का आलेख मिला और तुरंत छाप डाला। दूसरों को तो काम-धंधा है न बाबा। अभी रास्ते में हूं, दफ्तर पहुंच कर बात करते हैं।
      दफ्तर पहुंच कर रश्मि ने फोन किया तो दिवाकर तो मानो तपा बैठा था उसकी क्लास लेने को। तुम्हें मेरे आलेख स्तरहीन लगते हैं। तुमने समझ क्या रखा है मुझे? हर दूसरे-तीसरे दिन गाहे-बगाहे अख़बारों में मेरा नाम देख जलती हो तुम। तुम्हें मेरी खुशी में खुशी नहीं होती। जो दोस्त की खुशी में खुश न हो वो दोस्त हो ही नहीं सकता।
रश्मि ने कहा, मैंने सोचा तुम रात देर से लौटे और देर से सोए होगे, इसलिए सुबह-सुबह क्य़ा जगाना, दफ्तर पहुंच कर बात लूंगी।
झूठ बोलने की भी हद होती है। बड़ी आई मेरी नींद की परवाह करने वाली। सुबह से दसियों फोन और मैसेज आ गए मुझे। एक तुम्हारा ही नहीं आय़ा तो क्या फर्क़ पड़ गया। तुमसे तो मेरी खुशी हज़्म नहीं होती, ईर्ष्या होती है तुम्हें। और पता नहीं क्या-क्या कह गया एक ही सांस में। कुछ भी सुनने को तैयार नहीं।
अरे, कैसी ईर्ष्या? दोनों के अपने अलग-अलग फील्ड हैं। कोई कंप्टीशन की भावना नहीं। फिर भला क्यों ईर्ष्या करेगी उससे?’ दोनों ही अपने-अपने फील्ड में अच्छे पदों पर पदस्थापित थे। समान साहित्यिक अभिरुचियां थीं। ईर्ष्या की कैसी गुंजाइश? यह बात रश्मि आज तक उसे नहीं समझा पाई कि उसे उससे किसी तरह की ईर्ष्या या जलन नहीं। जो भी हो बात हमेशा रश्मि के विरुद्ध ही जाती।
फिर सोचा शायर बशीर बद्री साहब सही फरमाते हैं कि ज़रा सी बात क इतना मलाल करते हो, शिकायतें भी वहीं है जहां मोहब्बत है
      रश्मि हतप्रभ थी। हंसी-मज़ाक में हल्के-फुल्के अंदाज़ में कही गई बात सचमुच कितनी हल्की पड़ गई थी और रश्मि भी कितनी हल्की पड़ गई थी उसकी निगाहों में। जो आदमी मज़ाक बर्दाश्त न कर सकता हो उसे दूसरों से भी मज़ाक नहीं करना चाहिए। खुद तो दिवाकर ने हंसी ही हंसी में कई बार इससे भी भयंकर बल्कि आघात पहुंचाने वाली टिप्पणियां की थीं। एक पुरुष, एक महिला को ऐसी नागवार बातें कैसे कह सकता है। वह भी सुशिक्षित, संस्कारवान पुरुष। लेकिन दोस्ती की ख़ातिर रश्मि ने कभी उसकी बातों को तूल नहीं दिया। शायद किसी और ने कहा होता तो.........।
      अतीत में गोते लगा कर कोई फायदा नहीं, वर्तमान में फिर से संवादहीनता चल रही थी और वह सोच रही थी कि आख़िर कब तक चलता रहेगा यह सब। कब तक वह यूं ही अपने स्वाभिमान पर चोट को बर्दाश्त करती रहेगी और क्यों ? क्यों वह रोज-रोज़ मरती रहे।
      अचानक उसे ध्यान आया कि शायद आज रात दिवाकर को फिर से बाहर टुअर पर जाना है। यही सोच कर उसने फोन किया तो उधर से कहा गया, ‘स्टेशन पर हूँ। अभी सवा नौ की गाड़ी से रवानगी है। रश्मि को बहुत हैरत हुई कि कितना कठोर और निष्ठुर है यह व्यक्ति। तीन दिनों की संवादहीनता के बाद तीन दिनों के लिए शहर से बाहर जा रहा है बिना बात किए। मैंने फोन न किया होता तो दिवाकर का फोन कहां आने वाला था।
      रिश्ते बनाने आसान होते हैं, उन्हें निभाना और दीर्घजीवी बनाना मुश्किल होता है। अब और नहीं, बहुत हो गया। अब वह खुद को कमज़ोर नहीं पड़ने देगी। क्यों हम महिलाएं दिल से इनकी भांति कठोर और निष्ठुर नहीं बन पाती। दरअसल करीबी दोस्त होते हुए भी दिवाकर रश्मि के बात करने के लहज़े को समझ नहीं पाता। रश्मि कभी भी सीधी-सीधी बात नहीं कहती, उसे शब्दों के प्रपंच में पड़ने की आदत है और इसी से बस लोग गलतफहमी का शिकार हो जाते हैं, बुरा मान बैठते हैं। उसकी सहजता-सुलभता का ग़लत अर्थ निकाल लेते हैं। अब यह भी क्या बात हुई कि अपनों के साथ भी आप हमेशा गंभीरता का मुलम्मा चढ़ाए बात करें और सोच-सोच कर नाप-तौल कर बोलें।
यह अलग बात है कि जब ऱश्मि को उस पर बहुत दुलार आता तो कह देती, शूट कर दूंगी तुम्हें। दिवाकर कहता, मुझे कभी ग़लती से कुछ हो गया न तो पुलिस तुम्हें ही पकड़ कर ले जाएगी ये बात-बात पर शूट करने की बात कहने पर
रश्मि ने कई बार उससे कहा था कि तुम मेरे साथ ऐसा मत किया करो। हो सकता है तुम्हें कोई फर्क़ न पड़ता हो पर मुझे बहुत फर्क़ पड़ता है। मैं ठीक से काम भी नहीं कर पाती। इस तरह मेरे काम पर बहुत असर पड़ता है फिर चाहे वो दफ्तरी काम हो या लेखन का। लेकिन हर बार वही दोहराव। दिवाकर खुद को संभाल लेता होगा लेकिन रश्मि को लगता कि इन्सान को आज के ज़माने में इतना भावुक नहीं होना चाहिए। इमोशनल न होकर प्रैक्टिकल बनने की कोशिश करनी चाहिए। जो बीत गई सो बात गई। यही तो नहीं कर पाती वह।  वह सोचती जो आदमी घंटों बात करता रहता हो वो संवादहीनता की स्थिति में कैसे ख़ामोश रह लेता है। ठीक है अगर दिवाकर ऐसे खुद को नियंत्रित कर सकता है तो वह क्यों नहीं। वैसे तो वह खुद भी बहुत उसूलों की बहुत पक्की है लेकिन दिवाकर के मामले में वह ऐसा क्यों नहीं क पाती, क्यों सारे उसूल धरे के धरे रह जाते हैं? आखिर क्यों?
बस, अब सोच लिया तो सोच लिया। दिवाकर कहीं दिख जाए तो चुपचाप पास से गुज़र जाएगी बिन बात किए या फोन आया तो कह देगी, सॉरी, राँग नंबर। सोच तो लिया पर क्या वह टिक पाएगी अपने फैसले पर? वह भी भलि-भांति जानती है कि क़तई ऐसा नहीं कर पाएगी। सब कुछ भुलाकर फिर से जस की तस सहजता से बस यही कहेगी, बहुत रुलाते हो। यही तो फर्क है रश्मि और दिवाकर में। फिर दोनों इस तरह घुल-मिल जाएंगे मानो कुछ हुआ ही न हो।


साभार - दैनिक जागरण दीपावली विशेषांक 2013 (कोलकाता)।




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