सुस्वागतम् - जी आयां नूं

"संस्कृति सरोकार" पर पधारने हेतु आपका आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु'

रविवार, जुलाई 18, 2010

उपन्यास परिचर्चा -कृति - दिमाग़ में घोंसले

लेखक - विजय शर्मा

कोलकाता, 17 जुलाई की शाम भारतीय भाषा परिषद में जाने-माने लेखक विजय शर्मा के नए उपन्यास ‘दिमाग़ में घोंसले’ पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। परिचर्चा की शुरूआत जीवन सिंह के बीज वक्तव्य से हुई। जीवन सिंह ने कहा कि पाँच भागों में विभक्त उपन्यास की कथा-वस्तु का केन्द्र है ब्रजराज। उन्होंने काफ़ी विस्तार से उपन्यास के विभिन्न पहलुओं पर रौशनी डाली। उन्होंने कहा कि यह उपन्यास आज के दिनों में एक महाकाव्य है तथा इसे आम जनता के बीच वृहत्तर जीवन की खोज क़रार दिया।


कवि तथा कथाकार कुशेश्वर ने कहा कि उपन्यास का शीर्षक बहुत ही सटीक है। घोंसले कई तरह के होते हैं लेकिन बया के घोंसले की कारगरी बहुत ही सुंदर होती है। कौवे के घोंसले में कारीगरी नहीं होती लेकिन बहुत कुछ होता है। उन्होंने कहा कि घोंसले जब दिमाग में तैयार होते हैं तो बहुत ख़तरनाक होते हैं। उनमें पूरी दुनिया को समा लेने या मिटा देने की साज़िश होती है।


परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए कला समीक्षक राज्यवर्द्धन ने कहा कि कलकत्ते को लोग हिन्दी समाज का पिछवाड़ा मानते हैं। जब यहाँ से ज्ञानोदय पत्रिका निकलती थी तब ये मुख्य केन्द्र होता था। वैसे आज कलकत्ते की रचनीशीलता बढ़ी है और यह आशा जगाती है कि कलकत्ते में और रचनाशीलता आएगी। उन्होंने कहा कि जिस तरह चित्रकार पिकासो ने चित्रकारी में चीज़ों को गड्डमड्ड कर दिया था उसी तरह ‘दिमाग़ में घोंसले’ में भी चीज़ें आगे-पीछे हो गई हैं। इसकी भाषा काव्यात्मक है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पाँच भागों में विभक्त कथा-वस्तु अगर पाँच अलग-अलग कहानियां होतीं तो ज़्यादा सशक्त होता। उपन्यास का क्रमबद्ध विकास नहीं हो पाया है।इसी क्रम में कहानीकार सेराज खान बातिश ने कहा कि उपन्यास ऐसे समय में आया है जब देश में माओवाद चरम पर है। उपन्यास की भूमि भी माओवाद तथा नक्सलवाद है। ‘दिमाग़ में घोंसले’ का ब्रजराज जब जेल से निकल कर आता है तो उसके सामने वह आंदोलन नहीं है। उन्होंने कहा कि उपन्यास कुल मिलाकर फैज़ का एक शेर ही है :-


‘मुकाम फैज़ कोई राह में जंचा ही नहीं

जो कु-ए-यार से निकले तो सु-ए-दार चले।’


प्रो। आशुतोष ने कहा कि उपन्यास, उपन्यास न होकर 96 पृष्ठों का synopsis है। यह उपन्यास बन नहीं पाया। साथ उन्होंने यह भी कहा कि जब ज्ञानरंजन इस पर स्वीकृति की मोहर लगा चुके हैं तो फिर हमारी आलोचना कोई मायने नहीं रखती। ब्रजराज (उपन्यास का केन्द्रीय पत्र) कोई गंभीर क्रांतिकारी नहीं रहा भले ही उसे बीस साल की सज़ा मिली हो। उन्होंने कहा कि क्रांतिकथा में लेखक ने लेख प्रस्तुत किए हैं। कथा को गंभीर रूप से नहीं लिया गया। लेखक की भी अपनी स्वायत्तता है और पाठक की भी। इसका फार्मेट ऐसा है कि पाठक को कथा के साथ बहने नहीं देता। लेखक यह कहता प्रतीत होता है कि मैं उत्तर-आधुनिक लेखक हूँ। मेरा शिल्प अलग है। उन्होंने आगे कहा कि उपन्यास में अंतर्वस्तु कुछ नहीं हैं, शिल्प का प्रयोग है। अभी इस पर एक अच्छा उपन्यास लिखा जा सकता है। यह उपन्यास न बनकर सिनॉप्सिस मात्र रह गया है।परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए पत्रकार पुष्पराज ने कहा कि भूतपूर्व लेखक कहे जाने के आघात की चुनौती के मद्द-ए-नज़र उन्होंने यह उपन्यास लिखा। यह सिनॉप्सिस है। जिस बंगाल में वे बैठे हैं, वहाँ जो-जो कुछ हुआ वह इतिहास में दर्ज नहीं हो पाया। उपन्यास का शिल्प बहुत अच्छा है। लेखक अपने पात्र के साथ, पात्र की विचारधारा के साथ प्यार करता है। वह अपने पात्र के मौलिक स्वरूप के साथ छेड़-छाड़ नहीं करता लेकिन कई प्रसंगों में लेखक बचता है, हड़बड़ाहट में है। हड़बड़ाहट में नहीं लिखना चाहिए। विजय शर्मा को अंशकालिक नहीं पूर्णकालिक लेखक होना चाहिए। वे इसे प्रतिबद्धता के तौर पर लें।


शरणबंधु ने कहा कि मुझे धूमिल की पंक्ति याद हो आई है :


‘भूख से तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलवाद है।’

विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि चीज़ों को देखते हुए गुज़र जाना, उसमें इन्वॉल्व न होना, चीज़ों को क़तई पूर्णता नहीं देता। उन्होंने कहा कि लेखक का रोमांटिक मिजाज़ पूरी तरह से उपन्यास में उभर कर आया है। लेखक के पास काफ़ी कच्चा माल है। कच्चे माल का भविष्य में और भी गहराई से प्रयोग हो तो बेहतर है।

आलोचक-समीक्षक हितेन्द्र पटेल ने अपनी बात रखते हुए कहा कि हिन्दी के नए/युवा लेखकों को पुराने मानदंड से मापा और पुराने चश्मे से देखा जा रहा है। उन्होंने कहा कि उपन्यास का सिनॉप्सिस होना ही उसकी यूनिकनेस है। कथावस्तु 1967-69, 1981 और 2007 तक की है। इसमें उस कालखंड, मोबाईल तथा एस।एम।एस का फ्यूज़न तैयार किया गया है। और इस तरह इसके स्पेक्टरम से जो प्ले तैयार होता है वह चमत्कारपूर्ण है। इस किताब के बहाने हिन्दी में बहस छेड़ी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि हिन्दी वालों ने प्रयोग नहीं किए, अगर किए भी तो उन्हें समझने वाले आलोचक या समीक्षक नहीं मिले। इसके टेक्सट को बारीक़ी से समझे जाने की ज़रूरत है। उन्होंने आगे कहा कि कोई लकीर खींच देना आसान है। लकीर हमारे लिए सीमा-रेखा बन जाती है, लेकिन ज़रूरत है कि नई रेखा खींची जाए तभी रचनात्मकता का सम्मान होगा। विजय शर्मा में चिंगारी तो है लेकिन निष्ठा की कमी है। उनके कथामानस का हार्ड डिस्क कोमल है। पृष्ठ संख्या 58 से 61 तक में इसके दर्शन होते हैं। उनके मन में कई तरह की ज़िद है जिसे स्थापित करने के लिए उन्होंने जो सॉफ्टवेयर लगा रखा है, वह किसी विशेष वर्ग के प्रति व्यक्तिगत ख़ार को दर्शाता है। लेखन में इतनी स्पेस होनी चाहिए कि नया रास्ता दिखाई दे। विजय शर्मा के जीवन के अनुभव वाले प्रसंग बहुत बेहतरीन बन पड़े हैं।

इलाहाबाद से पधारे वरिष्ठ लेखक शेखर जोशी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि मैं यह देखकर अभिभूत हूँ कि परिचर्चा में अपने साथी की रचना पर सबने पूरी नि:संगता के साथ, ऑब्जेक्टिविटी के साथ अपनी अनुभूतियों को व्यक्त किया। उन्होंने उपन्यास के कथानक के विषय में कहा कि यह वह कालखंड था जब आज़ादी की लड़ाई के बाद पहली बार छात्र, अध्यापक और बौद्धिक लोग सड़कों पर उतर आए। यह आज के माहौल में एक मार्गदर्शक चीज़ है। अगर लेखक ने कुछ भी हमें ऐसा दिया जो उस युग का आभास देता है तो यह हमारे लिए गर्व की बात है। आज बहुत कम लोग उन चीज़ों पर उजास डालते हैं। उन्होंने कहा कि जो विचार आयातित होते हैं उन्हें हम खाँचों में बिठाने की कोशिश करते हैं जबकि लेखक अपने हिसाब से प्रयोग करता है। यह स्वागतयोग्य है।

अंत में विजय शर्मा ने उपस्थित सबके प्रति आभार व्यक्त किया। परिषद के निदेशक डॉ। विजय बहादुर सिंह ने परिचर्चा का संचालन किया। परिचर्चा के दौरान शहर के गण-मान्य साहित्य प्रेमी पाठक उपस्थित थे।


प्रस्तुति : नीलम शर्मा 'अंशु'

साभार - samvetswar.blogspot.com
17-07-2010, 11.59PM

1 टिप्पणी: