आओ, आज फिर बात करें 
चुपके से बैठें 
सब कुछ कहें 
घुप्प अंधेरे कमरे में 
मोमबत्ती की पतली लौ के सहारे 
चुपचाप 
कुछ न कहें 
हाथ में लेकर हाथ 
चुपके से 
बैठें आज फिर कुछ बात करें।।
ये लंबी ख़ामोशी 
आँखों में झांके इक-दूजे की 
पाँवों की थाप 
पोरों की छुअन से 
लबों की थिरकन में 
गालों की तपन से 
चुप से बैठें 
आज फिर बात करें 
बीते दिनों की गुज़रें लमहों की।। 
वो अपने से पल 
जो छूटे थे कल
जो छूटे थे कल
पुन: जिला कर
कॉफी के प्यालों में
कॉफी के प्यालों में
धुएं के ख़यालों से 
कागज़ की नावों की 
चुपके से बैठें हम 
ख़ामोशी से फिर बात करें।।
बीते हुए कल को
हथेली में धर के
आ रही भोर का आगाज़ करें हम
चुपके से बैठें 
कुछ न कहें हम
आओ, आज फिर यूं बात करें हम।।
o के.  प्रमोद
साभार - सृजन गाथा, 9 अप्रेल 2010 


बहुत अच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंहिन्दी भारत की आत्मा ही नहीं, धड़कन भी है। यह भारत के व्यापक भू-भाग में फैली शिष्ट और साहित्यिक भषा है।
बहुत उम्दा रचना!
जवाब देंहटाएंश्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये
खामोशी में भी बोलते शव्द, धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंश्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनांए.
अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंआपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को श्री कृष्ण जन्म की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं!
बीते हुए कल को
जवाब देंहटाएंहथेली में धर के
आ रही भोर का आगाज़ करें हम
कविता अच्छी लगी।
देवमणि पाण्डेय, मुम्बई