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रविवार, नवंबर 21, 2010

क्या आप जानते हैं रौशनी को?

 

मुझे बेवा क्यों बनाया जा रहा है ?’ रौशनी के ये शब्द रह-रह कर उसके कानों में गूंज रहे थे।

भरत अपने बंगले के बाहर बगीचे में टहल रहा था।

मेरा कसूर क्या है? रौशनी के ये शब्द गोली की तरह उसके सीने में आ लगते और उसके कदम लड़खड़ा उठते।

आख़िर मेरा कसूर क्या है ? मुझे बेवा क्य़ों बनाया जा रहा है ? ये शब्द उस महिला के थे जिसकी आवाज़ रूपी संगीत के सुनने के लिए उसके कान कभी तरसा करते थे।

मैं पूछती हूँ, आख़िर मेरा कसूर क्या है ? मुझे बेवा क्यों बनाया जा रहा है ?

जैसे किसी ने कंधे से पकड़ कर उसे रोक लिया हो। भरत की पलकों से सावन की बदली आँसुओं की झड़ी में बदलती जा रही थी।

दीवानों की तरह वह काफ़ी देर से बंगले के बगीचे में घूम रहा था। एकसिरे से दूसरे सिरे तक, हरा-भरा, झम-झम करता लॉन, फूलों-पौधों से सजे छोटे-बड़े गमले, फलों से लदे वृक्ष, सब्जियों की भरी-पूरी क्यारियां, दो बार, चार बार, दस बार वह चक्कर काट चुका था। उसकी चहलकदमी थम नहीं रही थी।

और बंगले के भीतर ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी कब से सज रही उसकी दुल्हिन तैयार भी हो चुकी थी। उठकर फिर से शीशे में अपने कहर ढाने वाले यौवन को निहारते हुए उसकी आँखें मुंद गई।

जैसे सरु का वृक्ष, चाँद-चाँदनी में अपने भीतर के खुमारे से महक उठे। पूनम की ननद जीती ने अंदर जाते हुए उसके हुस्न की दाद दी।

लिपस्टिक का रंग शायद थोड़ा और गहरा हो सकता था। वह उसके पास आकर कह रही थी।

हर पार्टी में वे लेट हो जाते थे। उसकी शादी हुए आज पाँचवां दिन था। सुबह-शाम उनकी दावतें हो रही थीं। हर पार्टी के लिए उसे दो बार सजना पड़ता था। भरत से मानो रहा न जाता हो। दुल्हिन को सजी-संवरी देखता तो मानो उसका अंग-अंग रोमांचित हो उठता। उसके अंग-अंग को सहलाने लगता। प्यार कर-कर के पागल हो जाता। पूनम को भी बेहद अच्छा लगता। यह सब किसे भला अच्छा नहीं लगता !

कल रात मेंहदी रचे उसके पैरों को वह चूमता रहा। दुल्हिन को बेहद शर्म आ रही थी पर ज़िद थी कि मैं तुम्हारे इन पाँवों पर सर रख कर सोया रहूं। हर बार उसके पैरों से वह अपनी पलकें छुआता। उसके पाँव भींग-भींग जाते। उधर वह बाथरुम से नहा कर निकली और इधर उसने ज़िद पकड़ ली। सोने से पहले वह हमेशा नहाया करती थी।

उसकी ननद जीती हँसते-हँसते दुहरी होती जाती। ऐसा तो सिर्फ़ किताबों में लिखा होता है। वह रह-रह कर भाभी को छेड़ती।

अभी तो आप लोगों को हनीमून पर भी जाना है। जीती उसे याद दिलाती।

पूनम सुनती तो उसे जैसे चक्कर आने लगते। लगता भरत तो उसे घोल कर पी जाएगा। उसकी मुहब्बत। वह तो उसे पूरी तरह अपने दिल के कोने में छुपा लेगी।

कभी किसी ने इस तरह किसी दुल्हिन को प्यार किया होगा? रह-रह कर उसका दिल सवाल करता और वह आँखें बंद कर लेती, उसका अंग-अंग मानो खुशी से सराबोर हो रहा हो।

बाहर ड्राईवर ने कार बंगले के पोर्च में खड़ी कर दी थी पर भरत की चहलकदमी अभी भी ख़त्म नहीं हुई थी। उसे करना भी क्या था। मुँह पर छींटे मारेगा, पैंट पहनेगा, उस पर शर्ट पहन लेगा और बटन बंद करता हुआ गाड़ी में जा बैठेगा। हमेशा कार में बैठ कर पूछा करता था, मैं ज़्यादा बेवकूफ़ तो नहीं लग रहा। उसकी दुल्हिन उसकी सादगी पर निसार हो जाती थी। उसका दिल करता कि बाँहों में भर कर उन होठों का रसपान कर ले, जिनसे ऐसे प्यारे शब्द निकलते थे।

 जाती सामने पड़े लिफाफे में नव-विवाहित जोड़े के ताज़ा तस्वीरों को देखने लगी।

ये कब आईं? जीती ने पूछा।

अभी-अभी तो कोई देकर गया है।

भईया ने अभी तक लिफाफा खोला भी नहीं।

डाक भी तो उसी वक्त आई थी। डाक में ढेर सारे ख़त थे। उनको पढ़ते रहे, फिर बाहर टहलने चले गए। कहने लगे पार्टी में देर हो जाएगी। इस तरह रोज़ मेरी सैर छूट जाती है। मैंने भी तो अभी यह लिफाफा नहीं खोला।

हर समझदार पत्नी अपने पति की डाक नहीं देखती। जीती के मुँह से निकला।

पूनम सुनकर झेंप सी गई। एक अनमनेपन से उसने अपनी ननद की तरफ देखा। वैसे तो अब तक भरत में पर्दे वाली कोई बात नज़र नहीं आई थी। फेरों के वक्त एकाधिक बार ये शब्द उसके कानों में पड़े थे, एक ज्योति दोई मूरती। जन्म-जन्मांतर का साथ। उसका दिल रह-रह कर कह उठा था, इस्लाम के निक़ाह की तुलना में आनंद कारज(सिख रीति-रिवाजों से होने वाला विवाह) वाली शादी में कितना फ़र्क़ होता है। इस्लाम में तो मुताह जैसी भी कोई चीज़ होती है। मुताह तो एक रात का भी हो सकता है। जब उसने पहली बार इस विषय में सुना था तो उसके पाँवों तले ज़मीन खिसक गई थी। पुराने ज़माने में सौदागर जब किसी शहर में रुकते थे तो जितने दिन रुकना होता, उतने दिनों के लिए मुताह करवा लिया जाता था। जाते वक्त उसे तोड़ दिया जाता था।

परंतु चाँद और चाँदनी से कोई भाग सकता है। रह-रह कर उसका दिल कह उठता। उसके माता-पिता ने तो उसका नाम पूनम रखा था। कभी-कभी भरत के मुँह से प्यार से रौशनी निकल जाता था। रौशनी हैदराबाद में उसकी किसी दोस्त का नाम था। भरत ने उसे बताया था। प्यार के ख़ुमार में चूर वह दुल्हिन के हुस्न का गुणगान करता पागल सा हो जाता। उसमें जो नहीं था, उसकी भी तारीफ करता। एक दिन पूनम ने उसे टोका था, भरत, मेरी जान मेरे गालों पर कोई तिल नहीं है, तुम तिल की तारीफ किए जा रहे हो। उसने सुना, फिर  उसका चेहरा देखने लगा। फिर आवेश में आकर प्यार करने लगा। चूम-चूम कर वह थक नहीं रहा था। आख़िर ख़ुमार में ही कहने लगा, जो कुछ इस बुत में नहीं है वह मैं अपनी तरफ से जोड़ लेता हूँ। प्यार करना तो कोई उससे सीखे।

हाय भाभी, इस तस्वीर में भईया किस तरह आपको देख रहे हैं।

पूनम ने देखा तो उसकी पलकें खुशी से मुंदने लगी। भरत कार का दरवाज़ा खोले खड़ा था। ढीले पाजामे को दोनों हाथों से संभाले दुल्हिन गाड़ी में बैठने के लिए आगे बढ़ रही थी, जैसे कोई शहज़ादी हो।

जैसे कोई राजकुमारी हो। ठीक उसी वक्त जब उसके मन में शहज़ादी का चित्र उभरा, जीती के मुँह से उस तस्वीर के बारे में शब्द निकले – ‘हाय भाभी, यह तस्वीर कितनी प्यारी है।  जीती एक और तस्वीर को देख तड़प उठी। उस तस्वीर में भरत पूनम के ऊभारी जूड़े में एक फूल लगा रहा था। एक हाथ से उसने जूड़े  को पकड़ रखा था, दूसरे से नर्गिस की डंठी बालों की तरफ बढ़ रही थी। जैसे किसी की जीवन भर की कामना पूरी हो रही हो।

नर्गिस दरअसल भरत की हैदराबाद वाली दोस्त रौशनी का पसंदीदा फूल था। जिन दिनों नर्गिस खिलते थे, उस पर सरूर सा चढ़ा रहता। गोल कमरे में नर्गिस, डायनिंग रूम में नर्गिस, बरामदे में नर्गिस। नर्गिस की कितनी ही क्यारियां उसके अपने बगीचे में थीं। फिर भी यदि बाज़ार में, सड़क के किनारे कोई नर्गिस बेच रहा होता, तो वह ज़रूर खरीदती। नर्गिस के मौसम में उसके बालों में भी यही फूल सजे होते। कोई अन्य फूल उसकी जुल्फों में किसी ने नहीं देखा था।

अपने ख़यालों में खोया बगीचे में टहल रहा भरत आगे बढ़ कर क्यारी से एक नर्गिस तोड़ने ही जा रहा था कि ऐसा महसूस हुआ मानो कोई उसके पास आकर खड़ी हो गई हो, और कह रही हो – ‘बोलते क्यों नहीं ?  मैं पूछती हूँ मेरा कसूर क्या है? मुझे बेवा क्यों बनाया जा रहा है?

       नर्गिस तोड़ने को बढ़े भरत की आँखों से छम-छम आँसू बहने लगे।

खिड़की से जीती और पूनम ने बाहर झाँका।

भईया! जीती ने पुकारा। भरत ने गर्दन घुमाई और एक नज़र दुल्हिन को देख खिल-खिला कर हँस पड़ा। पलकों में पिरोए आँसू और होठों पर छिटकती मुस्कान।

अगले दिन वह दफ्तर में आकर बैठा ही था कि टेलीफोन की घंटी बजी। हैदराबाद से कॉल थी। लाईन पर रौशनी थी।

भरत, तुम्हें मेरा ख़त मिला ? वह पूछ रही थी।

भरत की आवाज़ गले में कहीं खोकर रह गई थी।

भरत, मेरा ख़त तुम्हारे पास है? रौशनी पूछ रही थी।

भरत पसीने-पसीन हो रहा था, उसके हाथ काँप रहे थे। उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया था। चक्कर आ रहे थे। चक्कर-चक्कर, अंधेरा-अंधेरा।

भरत, बली, तुम बोलते क्यों नहीं? रौशनी उसे बली कह कर पुकार रही थी, जिस तरह वह कभी पुकारा करती थी। अपने शब्दों में असीम प्यार भरकर। उसकी आवाज़ धीमी हो गई थी। कोमल हो गई थी, मानो प्यार में सराबोर हो गई हो।

नहीं, नहीं, नहीं। मानो भरत की सिसकियां सी बंध गई थीं। ज़िंदगी ने उसके साथ अजीब खिलवाड़ किया था।

भरत! तुम्हें मेरी कसम, तुमने अगर ख़त को अभी, इसी पल नहीं फाड़ा तो तुम मेरा मरा मुंह देखोगे। मुझे कागज़ों के फाड़े जाने की
आवाज़ आनी चाहिए। अभी, इसी पल।

भरत ने जेब से रोशनी का ख़त निकाला, लिफाफे समेत उसे पुर्जा-पुर्जा कर दिया। यह सब रौशनी ने फोन पर सुना। फिर वह उसे उसकी शादी की लाख-लाख मुबारकबाद देने लगी। फिर ख़त लिखने का वादा किया। दिल्ली आकर उनसे मिलने, उनके यहाँ ठहरने का वादा किया। यह भी कहा कि वह पार्सल से उसकी दुल्हिन के लिए तोहफ़ा भेज रही है।

मैंने आज सुबह अख़बार में तुम दोनों की तस्वीर देखी। हाय! कितनी प्यारी दुल्हिन चुनी है तुमने। तुम्हारी पसंद की दाद देनी पड़ेगी। उसका नाम भी कितना प्यारा है, पूनम!’ 

सुनकर भरत मुस्कराने लगा। पूनम तथा रौशनी में कोई फ़र्क़ नहीं है। उसने कहा।

यहाँ तो हर कोई उसका दीवना हो रहा है। मेरे मियां तो उससे मिले बिना ही उस पर फिदा हो गए हैं। कभी कहते हैं, कितनी लंबी है, कभी कहते हैं, कितनी गोरी है। कभी कहते हैं, स्वभाव की बड़ी अच्छी लगती है। कोई उनसे पूछे कि तस्वीर से किसी के स्वभाव के बार कैसे पता चला गया।

सच, भाभी जान!’ भरत हमेशा रौशनी को भाभी जान कहकर पुकारता था।

इतने दिनों बाद पहली बार भरत के मुँह से भाभी जान सुनकर मानो रौशनी को उस पर असीम प्यार आ गया हो, वह खुद अपने में खोई बोले जा रही थी।

तुम लोगों की तस्वीर काट कर जावेद ने अपने पर्स में रख ली है। मैंने उससे कहा, मियाँ, तुम तो मानो पूरी तरह बिक गए हो। भरत, तुम अपनी बीवी को बचा कर रखना। इस आदमी का कोई ऐतबार नहीं। तुम्हें तो पता ही है, गोरी चमड़ी देख कर मेरा मियां घायल हो जाता है।

जावेद है कहाँ? भरत ने पूछा।

दफ्तर गया है। आजकल साहब बहादुर वक्त से पहले दफ्तर पहुँच जाते हैं। कहते हैं इनकी कोई नई सेक्रेटरी आई है, मुझे तो अभी दर्शन नहीं हुए।

बातों ही बातों में रौशनी ने उसे अपनी ज़िंदगी के भयानक दुखांत की याद दिला दी थी।

बच्चे स्कूल के लिए निकले तो मैंने सोचा, मैं तुम्हें फोन कर लूं। अपनी बेहूदगी के लिए माफी माँग लूं। पता नहीं उस दिन तुम्हारा तार पढ़ कर मुझे क्या हो गया था। और मैं वह ख़त लिख बैठी। भरत, तुमने वह ख़त ही नहीं फाड़ा, बल्कि अब तुम्हें उसका हर लफ्ज़ भूल जाना होगा। कभी उसे याद मत करना। कभी उसका ज़िक्र भी नहीं। यदि तुमने ऐसा न किया तो मैं फिर कभी तुम्हारे मुँह नहीं लगूंगी। हाँ, एक बात....। और रौशनी एक पल के लिए रुक गई।

हाँ, एक बात और फिर एक झटके से उसने कहा, पर तुम्हें बली कह कर कोई और नहीं पुकार सकेगा।

और फिर उसने फोन बंद कर दिया।

फोन कब का बंद हो चुका था, फिर भी न जाने कितनी देर तक भरत रिसीवर को अपने हाथ में पकड़े रहा। उसका दिल नहीं चाह रहा था कि उसे वापस क्रेडिल पर रख दे।

सचमुच उसे बली कह कर रौशनी ही पुकारा करती थी। किसी और को वह इस नाम से पुकारने का अधिकार नहीं दे रही थी। बेशक इस नाम पर उसका कॉपीराईट था। भरत के अंग-अंग में एक लहर सी दौड़ गई। उसका अंग-प्रत्यंग रोमांचित हो उठा।

वह सोच रहा था, मानो ज़िंदगी एक नाटक हो। कल रौशनी का ख़त पाकर किस तरह वह तड़प उठा था। शाम की पार्टी का सत्यानाश हो गया था। सारी रात आँखों में ही कट गई थी। अब एक टेलीफोन पर कुछ का कुछ हो गया। चारों तरफ उसे चहल-पहल नज़र आने लगी थी। बाहर मानों सर्दियों की धूप एक दम खिल गई हो। फूल महक उठे थे, रंग लुटाने लगे थे। सड़क के पर सिनेमाघर से लाउड-स्पीकर पर कोई गा रहा था

आप का साथ, साथ फूलों का। आपकी बात, बात फूलों की।

                                                                         -(मख़दूम)

भरत उमंग से दफ्तर का काम कर रहा था। फाइलें निपटा रहा था। फैसले ले रहा था, फोन अटैंड कर रहा था। पिछली शाम की बदमज़गी वह एकदम भूल गया था। अचानक उसकी नज़र टेबल के नीचे पड़ी रद्दी की टोकरी पर जा पड़ी। रौशनी के ख़त के टुकड़े उसमें पड़े देख फिर से उसके कानों में वही शब्द गूंजने लगे –‘बोलते क्यों नहीं? मैं पूछती हूँ, आख़िर मेरा कसूर क्या है? मुझे बेवा क्यों बनाया जा रहा है ?

और भरत सोचने लगा, रौशनी ने यह क्यों लिखा? बेशक उसके भीतर की उदार महिला ने पहले ही अवसर पर अपने शब्द वापिस ले लिए थे। परंतु जब उसने ये शब्द लिखे थे, उसके मन की स्थिति कैसी रही होगी। उसने क्यों यह कहा था – ‘मुझे बेवा क्यों बनाया जा रहा है?इसका अर्थ तो यह हुआ कि कोई उसके साथ परनाई हुई थी। उसका अर्थ यह है कि रौशनी उसकी थी और उसने किसी और के साथ शादी रचा ली थी। ब्याही हुई न सही, परनाई तो हुई थी। इसका अर्थ यह हुआ कि रौशनी उसे दिल दे बैठी थी। बेशक उसने दुनिया की नज़रों में अपने इस अधिकार की तसदीक नहीं कराई थी। चार लोगों को साक्षी रखकर अपने फैसले का ऐलान नहीं किया था।

ऐलान करती भी तो कैसे? रौशनी का पति था, जिससे उसने प्रेम विवाह किया था। अपनी सारी बिरादरी को रुसवा कर उससे अपना रिश्ता जोड़ा था। रौशनी के दो बच्चे थे। एक बेटा और एक बेटी। हीरों जैसे उसके जिगर के टुकड़े। उनका क्या कसूर था कि उनसे उनके पिता का साया छीन लेती। अपनी माता-पिता को वह क्या मुँह दिखाती, जिनकी इच्छा के विपरीत उसने जावेद के साथ निक़ाह पढ़वाया था।

भरत सोचता, क्या यह सब उसे पता नहीं था? पता क्यों नहीं था? जिस तरह का प्यार रौशनी ने उसे दिया, वैसा प्यार कभी किसी ने किसी से किया होगा?

यदि पता था तो उसने यह बदतमीज़ी क्यों की थी? हैदराबाद से आए उसे चार दिन भी नहीं हुए थे कि वह पूनम का दीवाना हो गया था। इतने बड़े अख़बार का एडीटर वह, रेडियो की एक आर्टिस्ट पर फिदा हो गया। एक तरह से पूरी तरह बिक गया था। बेशक हैदराबाद से दिल्ली वह पदोन्नति पर आया था। तो क्या हुआ? इस तरह भी कोई अपने माज़ी को भूल जाता है? रौशनी को इस निर्णय में शामिल तो कर लेता। उसकी राय तो पूछ लेता। उसने तो उसे सिर्फ़ तार से सूचना दी थी। जिस तरह उसने दूसरे दोस्तों और रिश्तेदारों की दी थी – ‘कल मैं और पूनम परिणय सूत्र में बंध गए हैं। 

साभार जनसत्ता, कोलकाता, 25 जून, 1994

लेखक करतार सिंह दुग्गल

उपन्यास फूलों का साथ

पंजाबी से अनुवाद नीलम शर्मा अंशु

 

कहानी के बहाने संवाद कॉलम के तहत् इस उपन्यास अंश पर पाठकीय प्रतिक्रियाएं आमंत्रित की गई थी। प्राप्त दो प्रतिक्रियाएं इस प्रकार हैं:-

(1)           मैं रौशनी को जानता हूँ....

 

जी हाँ, मैं रौशनी को जानता हूँ। हर शहर की हर गली के तीसरे, चौथे या पाँचवे मकान में रहती है वह।

मुझे बेवा क्यों बनाया जा रहा है? मुँह से नहीं मन से निकली चीख है। यह चीख बार-बार मुझे कसाई के चबूतरे की ओर घसीटी जा रही बकरी के आर्तनाद की तरह झकझोर कर रख देती है।

रौशनी और भरत के रिश्ते के प्रति न तो सामाजिक समर्थन है और न ही कानूनी मुहर। दो बच्चों की माँ और जावेद की बीवी होते हुए भी भरत के प्रति अनुरक्ति व भरत के विवाह की सूचना पर तत्कालिक प्रतिक्रिया मुझे बेवा क्यों बनाया जा रहा है?प्रचलित अवधारणा की परिपंथी भले ही लगे पर यह अस्वभाविक नहीं है।

बेवा होने का अर्थ केवल उसका गुज़र जाना ही नहीं होता जिसके साथ निकाह पढ़ा गया हो या सात फेर लगे हों अपितु प्यार के अधिकार का छिन जाना भी होता है। जहाँ मनुष्य गहन अंधकार में संगहीन और संवादहीन होकर रह जाता है जीवन उद्देशयहीन लगने लगता है।

माँ-बाप, समाज, सबको छोड़ रौशनी ने जावेद का दामन थामा था तो इसलिए कि जावेद के प्यार में उसे जीवन का उद्देशय नज़र आया था। पर स्वप्निल प्यार की नज़ाकत से जावेद के हक़ीक़त के बीच तनी एक लंबी दूरी थी और जैसे-जैसे रौशनी को इसकी अनुभूति होती गई वह अपने को नि:संग व ठगा-ठगा सी महसूस करने लगी। अपने चुने रास्ते ही जब भटका दें तो आख़िर क्या कहे, किससे कहे आदमी?

रौशनी ने अपनी टूटन-घुटन के इन्हीं काँपते क्षणों में भरत को पाया था। भरत के प्रति उसकी अनुरक्ति, उसका गिरना नहीं था, अपितु उसके प्यार का विस्तार था। उस प्यार का विस्तार जिस प्यार के लिए रौशनी घर-परिवार और समाज को दरकिनार करती जावेद के साथ चली आई थी पर ठगी गई थी।

किंतु रौशनी यूरो-अमेरिकन संस्कृति की उपज नहीं है वरन् खालिस देशी खाद-पानी की देन है। वह राधाऔर मीराकी उत्तराधिकारिणी है। वह अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्य को जानती है, दूसरी ओर वह भरत की विवाहिता के अधिकार को भी छीनना नहीं चाहती, यही कारण है कि वह कोमल अहसास का नाम बली केवल अपने लिए रख भरत को मुक्त कर देती है।

 

-                              अवनीश कृष्ण, बाघनापाड़ा, बर्दवान, प. बंगाल।

 

 

(2)                       मानसिक विधवा की व्यथा


 क्या आप जानते हैं रौशनी को? उपन्यासांश के संदर्भ में मेरा यह विचार हे कि लेखक श्री दुग्गल जी ने नायिका के माध्यम से एक ऐसी लड़की की मनोव्यथा का वर्णन किया है जो शारीऱिक रूप से सधवा होते हुए भी मानसिक रूप से विधवा है।

मानवीय स्वभाव की यह ख़ास कमज़ोरी है कि वह जिसे टूट कर चाहता है उसमें किसी किस्म का बंटवारा सहन नहीं कर सकता और अगर कभी ऐसा होता है तो वह कुछ भी कर गुज़र सकता है।

नायिका रौशनी ज़माने से बगावत कर जावेद से निकाह करती है क्योंकि वह उससे प्यार करती थी लेकिन जावेद सिर्फ़ उसी का बनकर नहीं रह पाया। बकौल रौशनी इस आदमी का कोई ऐतबार नहीं।       

यूं तो विधवा का शाब्दिक अर्थ होता है जिसका पति मर गया हो पर रौशनी शारीरिक रूप में सधवा रहते हुए भी मानसिक रूप से विधवा थी। भरत के अपनेपन को पाकर उसका विधवापन जाता रहा। तभी अचानक एक तार एक तूफान लेकर आता है और उसे फिर से विधवा का लिबास  पहना देता है। वह इसके लिए तैयार भी नहीं थी। आख़िर जालिम तक़दीर यह खेल उसके साथ ही क्यों खेलती है?  जिसे वह संपूर्ण रूप से पाना चाहती है वह इस तरह से बंट क्यों जाता है? उसके सब्र का बाँध टूट जाता है। उसकी अंतरात्मा चीत्कार कर उठती है आख़िर मेरा कसूर क्या है?मुझे बेवा क्यों बनाया जा रहा है?’ 

पर एकाएक उसे यह भी अहसास होता है कि उसकी मानसिक तृष्णा एक विकृति का रूप लेने लगी है, जिसमें सिर्फ़ अपने स्वार्थ की ही चिंता है। यह अहसास उसे पश्चाताप के लिए उकसाता है तो वह अपने आपको छोटा महसूस करने लगती है। उसकी यह ग्लानि टेलीफोन का रूप धारण कर लेती है। लेकिन साथ-ही-साथ वह अपने मानसिक रूप से विधवा होने से बचने के लिए एर उपाय भी ढूँढ लेती है। यह उपाय उसे एक अधिकार के स्वामित्व की शक्ल में सूझता है जिस अधिकार को शायद कोई नहीं छीन सकता। यह अधिकार है भरत को बलीकहने का अधिकार जिसमें उसकी मानसिक तृष्णा की तृप्ति होती है। वह अपने को उसमें सधवा महसूस करती है।

प्रस्तुत उपन्यास अंश में लेखक ने वर्तमान नारी की अंतर-व्यथा के जीवंत वर्णन के साथ ही साथ एक दिशा भी प्रदान की है जिसमें आगे बढ़ते हुए काफ़ी कुछ लिखा जा सकता है। एक ऐसी औरत जिसके पास कुछ नहीं है, नौकरी पेशा शौहर है, हीरे जैसे दो बच्चे हैं, तमाम सुख-सुविधाएं हैं परंतु वह मानसिक रूप से सुखी नहीं है। शायद यह वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति का सबसे दुखद अध्याय है जिसे पढ़ना, समझना और जिस पर लिखना अभी शेष है।

- रामजी रामेन्द्र, 1, नीमक महल रोड, सीसीसी, कोलकाता। 

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