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रविवार, सितंबर 08, 2013

काबुलीवाले की बंगाली बीवी की काबुल (अफ़गानिस्तान) में हत्या।



काबुलीवाले की बंगाली बीवी (काबुलीवालार बांगाली बोऊ) पुस्तक की लेखिका सुष्मिता बंद्योपाध्याय की अफगानिस्तान में गोली मार कर हत्या कर दी गई है। लगभग डेढ़ घंटा पहले चंडीगढ़ से पारवारिक मित्र प्रमोद जी ने फोन करके इस बात की सूचना दी तो टी. वी. पर समाचार देखने शुरू किए। अभी-अभी लुधियाना से भाई चंदन स्वप्निल का फोन भी आया इसी सिलसिले में। बांगला की इस पुस्तक का अनुवाद मैंने 2002 में किया था। राजकमल प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक उस वर्ष के कोलकाता पुस्तक मेले में बेस्ट सेलर रही थी। इस पर फिल्म भी बनाई गई एस्केप फ्रॉम तालिबान, जो कि ख़ास चली नहीं।

लेखिका की जीवनी पर आधारित है यह कृति। सुष्मिता बंद्योपाध्याय ने अपने परिवार की सहमति के बगैर अफ़गानी युवक जांबाज से प्रेम विवाह किया और उसके साथ उसके देश रवाना हो गई। जांबाज वहाँ ढाई साल तक साथ रहा और फिर एक दिन बिना बताए अचानक हिन्दुस्तान लौट आया। सुष्मिता अपनी कोशिशों से हिंदुस्तान वापस आती है। उसके बाद इस पुस्तक की रचना होती है। पुस्तक उन दिनों हॉट केक की तरह बिक रही थी बांगला में। मैंने इसके हिन्दी अनुवाद का मन बनाकर उनसे बात की। हलाँकि मुझे व्यक्तिगत रूप से ये पुस्तक कुछ खास जंची नहीं थी लेकिन बाज़ार में इसकी फी़ड बैक को देख कर मन बनाया अनुवाद का। उन्हीं दिनों मुलाकात के दौरान मैंने उनसे पूछा था कि आजकल जांबाज खान कहाँ हैं। जवाब में उन्होंने कहा, साथ वाल कमरे मैं बैठे हैं। उठ कर मैंने उनकी एक झलक देखी भी। सुष्मिता का जवाब सुनकर मेरे तो पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। मैंने कहा, जिस व्यक्ति पर भरोसा करके आपने अपने परिवार के विरुद्ध जाकर शादी की, वह इस तरह आपको अपने देश में अकेला छोड़ भाग आया और आप अपनी कोशिशों से स्वदेश लौटती हैं और फिर उसी शख्स के साथ एक ही छत के नीचे फिर से कैसे जीवन गुज़ार सकती हैं। जवाब में उन्होंने कहा कि अपने मायके के परिवार की इच्छा के विरुद्ध मैंने शादी की थी तो उस परिवार से नाता पहले ही टूट गया था, अब वापस लौट कर उनके पास किस मुँह से जाती। मेरे भाई-बहनों की शादियों में भी दिक्कत आएगी। मैं फाईनैंशियली आत्मनिर्भर तो हूँ नहीं, परिणामस्वरूप जीवन-यापन के लिए मुझे जांबाज पर ही निर्भर होना पड़ा। खैर, अपनी जगह उनका ये तर्क सही हो सकता है परंतु एक महिला होने के नाते मुझे उनका यह जवाब उस वक्त हज्म नहीं हो रहा था। ऐसे शौहर के साथ महिला फिर से कैसे रह सकती हैं।

एक बात तो है उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी। वे अपनी कोशिशों से इतनी तकलीफें झेल कर हिंदुस्तान वापस आने में सफल रहीं।  कोई और साधारण महिला होती तो वहीं एड़ियां रगड़-रगड़ कर मर-खप गई होती।

पुस्तक के एक अंश में कुछ अफ़गानी महिलाएं कहती हैं -  सच ही तो हैं। यह जुल्म है। साहब कमाल (सुष्मिता का वहाँ का नाम) में हिम्मत है तभी तो विरोध कर पाई। वर्ना ये तालिबान उसे आज गोलियों से भून देते। देश की सभी महिलाएं यदि इसी तरह विरोध करना सीख लें तो किसकी हिम्मत है जो हम पर अत्याचार करे।

एक अंश में सुष्मिता लिखती हैं सरोजनी नायडू, रानी लक्ष्मीबाई, देवी चौधरानी, इंदिरा गांधी के देश की महिला होकर मैं कुछ बुरे लोगों के बुरे मतंव्य को ख़ामोश रह कर सुन रही थी। मैंने तुरंत फैसला कर लिया। मरूंगी, मैं मरूंगी, लेकिन इनके हाथों नहीं।


अफ़सोस कि वे उन्हीं तालिबानियों कि गोली का शिकार बनीं लेकिन हैरत तो इस बात की है कि वे दुबारा अफगानिस्तान गई ही क्यों, सब कुछ जानते-बूझते हुए भी ? और गईं कब लगभग तीन-चार साल पहले मैंने उनके कैंपस में रहने वाले अपने एक परिचित से उनका फोन नंबर उपलब्ध करवाने की गुज़ारिश की थी तो उन्होंने पूछ-ताछ करके बताया कि वे अब वहाँ नहीं रहती कहीं और शिफ्ट हो गई हैं। 

- नीलम शर्मा 'अंशु'
(06-09-2013)

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