“अगर मैं तुझे किसी चकले या सड़क पर धंधा करते मिलती तो भी क्या तू मुझे यही
कहता, ‘आ चल दीदी घर चलें’?”
बहुत दिनों के बाद कोई पुस्तक एक ही सिटिंग में पढ़ कर समाप्त की, कहानियां तो
बहुत सी पढ़ी हैं एक है सिटिंग में। हरपिंदर राणा लिखित हाल ही में प्रकाशित पंजाबी
उपन्यास ‘की जाणा मैं कौण’ किन्नरों के जीवन पर आधारित लेखिका के व्यापक शोध और
बरसों के परिश्रम का परिणाम है। किन्नर पुत्री को जन्म देने पर पिता भी माँ को ही
कसूरवार ठहरा कर अपनी भड़ास निकालता रहता है। कालांतर में पिता द्वारा उस बच्ची को
महंत किन्नर को सौंप दिया जाता है। माँ की व्यथा का अंदाज़ा आप लगा सकते हैं जो
अपने दिल का दर्द किसी से सांझा तक नहीं कर पाती और अपनी उस बच्ची से संबंधित अपनी
सारी अनुभूतियों को चोरी-छिपे अपनी डायरी में दर्ज़ करती रहती है।
15 अप्रैल 2014
को जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले द्वारा किन्नरों को थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता
प्रदान की जाती है तो उस दिन माँ को टी वी स्क्रीन पर नज़रें गड़ाए और बाद में डायरी में कुछ लिखते देख उस बच्ची
से 15 साल छोटा बेटा जो कि अब पुलिस विभाग में कार्यरत है, उत्सुकतावश चोरी-छिपे
माँ की डायरी से उसे इस हक़ीकत का पता चलता है तो अपनी उस बहन को ढूँढ निकालना
उसके जीवन का मकसद बन जाता है।
एक दिन वह उस तक पहुँच जाता है और अपनी दीदी से घर
चलने का अनुरोध करता है। बहन एक दिन माँ से मिलने आने का वादा करती है पर उससे
पहले वह भाई के समक्ष एक सवाल रखती है -
“अगर मैं तुझे किसी चकले या सड़क पर धंधा करते मिलती तो भी क्या तू मुझे यही
कहता, ‘आ चल दीदी घर चलें’?”
छन्नो माँ का हाथ पकड़ कर बोली, “माँ ! तुम्हें तो पता है घर
से निकाले जान पर आश्रय कम ही मिलता है। अगर मुझे भी पाँवों में घुघरू बाँधने
पड़ते तो क्या तुम फिर से मुँह फेर लेती?”
माँ इस सवाल पर ख़ामोश थी।
‘बोलो न माँ, जवाब दो देना ही पड़ेगा।’
‘माँ हूँ पुत्तर। तुझे उस हालत में देख कर आँखें दु:ख से मुंद गई थीं। तेरी हालत
देखने की हिम्मत न होने के कारण ही मुँह फिराया था।... परंतु तुम्हारे अस्तित्व की
सच्चाई से इन्कार न तो मुझे कल था और न ही आज है। हाँ, बेबस ज़रूर थी क्योंकि पराधीन
थी। पल-पल पिघलती रही हूँ। तुम्हारी एक झलक देखने के लिए जगह-जगह माथा टेका
है। मैं तो अपने पेट की गाँठ भी नहीं खोल
सकती थी।’ यह सुनकर कर छन्नो का दिल भी भर आया।
‘माँ, यह तुम्हारी निशानी गले से लगी रहती थी। इसी में तुम धड़कती रहती थी।
पहाड़ जैसी रातें और कई डरावनी काली रातें इसीके सहारे गुज़ारीं। तुम्हारी आशीषें
ही थीं कि मुझे ममता बहन मिल गई और मैं तुम्हारा सपना पूरा कर सकी। इसके बिना कुछ
संभव नहीं था।’ माँ ने उठ कर ममता का भी माथा चूमा। उसकी भी आँखें छलक उठीं।
‘न बेटी, तू तो मेरी बहादुर बेटी है।’
‘नहीं माँ, जब सर पर आती है न तब सब कुछ सहना आ जाता है। बहुत दुख सह कर
तुम्हारा सपना पूरा किया है। बहादुर तो माँ तुम्हारा यह बेटा है जिसने इतनी मेहनत
से हमें ढूँढा है।’
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‘अच्छा माँ अब हम चलते हैं। फिर
आएंगे मिलने।’ माँ की आँखें छलक उठीं।
‘जाना कहाँ है बेटा ? अब यहीं रहेंगी मेरी बेटियां।’
‘नहीं माँ ! रहूंगी तो मैं डेरे में ही। वही मेरी कर्म भूमि है। मेरा जीवन डेरे से जुड़ा
है और मैं कईयों के जीवन से जुड़ी हूँ। वही मेरा असली घर है जहाँ मैंने जीवन के
सुख-दु:ख काटे हैं।’
‘मैं मानती हूँ बेटा तुम्हारी बात,
पर मुझमें अब हिम्मत है कि मैं अपनी बेटी को घर में रख सकूं।’
‘माँ कोई बात नहीं, वह दिन भी ज़रूर
आएगा जब हर माता-पिता में हिम्मत आएगी हमारे जैसी औलाद को घर में रखने की।’
‘मेरे लिए तो वह दिन आज ही है।’
माँ की बात पूरी होने से पहले ही देबो मौसी जल्दी-जल्दी चल कर आते हुए बोली – ‘अरी जीतो, न मंगनी न शादी ये किन्नर क्यों आए हैं। बहू कहती है कि सुबह से आए
हुए हैं। मैं तो शहर चली गई थी दवा-दारू लेने। कहती है सारा गाँव टोह लेता फिर रहा
है।’
‘अरी बहन ये तो मेरी बेटियां हैं।
यह मेरी बेटी छन्नो है। मेरे जिगर का टुक़ड़ा। करने से बड़ी।’ मंजीत ने अपनी बेटी को गले से लगाते हुए कहा। देबो
सकपका कर पीछे हट गई।
‘पर जीतो सारा गाँव तो आन खड़ा है
टोह लेने को। उसे क्या जवाब देंगे कुछ सोच लो अभी ही, क्या जवाब देना है।’
‘सोचना क्या है मेरा तो काम आसान हो
गया।’ कहते हुए छन्नों की बाँह पकड़ माँ दरवाज़े की ओर बढ़ी।
‘आओ भई औलाद वालो। आओ, आओ। दौड़ कर
आओ, आपको अपने बच्चों से मिलवाऊं। यह मेरी बेटी। मेरी छन्नो। मुझ से छीन ली गई थी।
अब मिली है मुझे। मेरी अच्छी बिटिया।’ माँ ने छन्नो को गले लगाया।
‘गाँव वालो जिसे आप किन्नर समझते
हैं न, इसे मैंने ही जन्म दिया है परंतु मैं अपने घर वालों से और मेरे घर वाले समाज
से डरते थे तभी तो अपने हाथों महंत को सौंप दी थी। अब मैं स्वीकार करती हूँ अपनी
बेटी को। जैसे मेरा बेटा, वैसे ही मेरी बेटी छन्नो। करने से बड़ी। मुझे अपनी संतान
स्वीकार है, गाँव वालो स्वीकार है’ ... माँ पूरे जोश से बोल रही है।
समय स्तब्ध सा खड़ा है।
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(एक किन्नर के स्वावलंबी बन कर टेक्सटाइल मिल के मालिक बनने, अपनी माँ के सपने को पूर्ण करने और किन्नरों के पाँवों तले ज़मीन मजबूत करने और पुख्ता पहचान की संघर्षगाथा है ‘की जाणा मैं कौऩ’ )
प्रस्तुति : नीलम अंशु
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