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शनिवार, जनवरी 23, 2010

कविताएं - के. प्रमोद



अभिमन्यु अकेला है…


चला था -
दूरी कहीं – सभ्यता की
रौशनियों को देख
उन्हें पाने की चाह में।

सुना था
आगे बहुत सी राहें फूटती हैं !
पहुंच कर
उस मोड़ पर
देखा है
मैंने
कई-कई राहों को
मकड़ी के जाल से
बुनी।

और मैं खड़ा हूं
अभिमन्यु सा निहत्था
चक्रव्यूह को काटने में असमर्थ
उस राह में।

कहते हैं
चांदी का जूता चाहिए - यहां
रथ का टूटा पहिया नहीं।

आज फिर
अभिमन्यु अकेला है
निहत्था
द्रोणाचार्य की आंख
झुकी है
सूर्य डूब चला है
कौन जाने
आज फिर
कृष्ण वक्त पर आएगा
सूर्य पुनः उगेगा कि नहीं।

-  के.  प्रमोद


संक्षिप्त परिचय -

हिन्दी विकास परिषद चंडीगढ़ के संस्थापक एवं संपादक रहे। कई वर्षों तक साइक्लोस्टाइल पत्रिका विकास का संपादन। कविताएं यत्र-तत्र प्रकाशित।
संप्रति बैंक में अधिकारी।

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