सुस्वागतम् - जी आयां नूं

"संस्कृति सरोकार" पर पधारने हेतु आपका आभार। आपकी उपस्थिति हमारा उत्साहवर्धन करती है, कृपया अपनी बहुमूल्य टिप्पणी अवश्य दर्ज़ करें। -- नीलम शर्मा 'अंशु'

मंगलवार, फ़रवरी 16, 2010

पंजाबी कहानी- इंतज़ार

लेखक - राम सरूप अणखी


दीवारों के साए लंबे होकर हल्के हो गए हैं। दिन ढलने को आया है। आसमान का रंग बैंगनी सा होने लगा है। पड़ोस से मसाला भूनने की तीव्र गंध आ रही है, नाक में जलन सी छेड़ने वाली गंध ! सुमित्रा की नज़र अपने चूल्हे की तरफ चली गई है। वह दुविधा में है, खाना बनाए या न बनाए ।

भीतरी कमरे में चारपाई पर लेटी वह सामने की दीवार की तरफ देख रही है। दीवार पर कई तरह के चित्र बनते हैं और मिट जाते हैं। धीरे-धीरे कमरे में अंधेरा प्रवेश करता है। दीवार वाले चित्र अब सुमित्रा के हृदय में उतर गए हैं। कमरे की बत्ती जलाने की भी शक्ति उसमें नहीं है।

उसे महसूस हुआ मानो बंद दरवाज़े पर दस्तक हुई हो।
जाकर दरवाज़े की कुंडी खोलती है। देखा, बाहर कोई नहीं है। घर के सामने सड़क पर कारों, स्कूटरों तथा साईकिलों का आवागमन कम हुआ है। जो भी मकान उसे दिखाई देता हे, सबके भीतर बिजली की रोशनी भी दिखाई दे रही है। रात हो रही है, परंतु लोगों ने अपने घरों में दिन चढ़ा लिया है। सुमित्रा ने अपने घर की कोई भी बत्ती नहीं जलाई है। वह वापस अपने आँगन में आ गई है। उसने महसूस किया है, अब तो वह आ ही जाएगा। आ ही जाना चाहिए। घर में पति-पत्नी सौ बार लड़ते हैं, यह तो कोई बात न हुई कि आदमी लड़ पड़े और घर ही न लौटे। और जाएगा भी कहाँ ? यहीं तो आना है। परंतु यदि न आया तो ? क्या पता आदमी के दिल का ? बात दिल को कुछ ज़्यादा ही लग गई हो। मैं भी तो कितनी शक्की हूँ ? छोटी-छोटी बातों पर लड़ने बैठ जाती हूँ। बरामदे में, पीढ़ी पर उदास बैठी, ख़ामोश वह अपने खुद को लानतें दे रही है।

आज सुबह जब वह काम पर जाने लगा था तो उसने शिकायत की थी कि वह रोज आलू की ही सब्ज़ी क्यों बना देती है, निरे आलुओं की ही। और नहीं तो आलुओं में कुछ डाल ही दिया करे। पकौड़े ही सही। स्वाद तो बदल जाए। नित्य आलू, नित्य आलू।
‘लाकर भी देते हैं कोई और सब्जी ?’
‘ पहले भी क्या मैं ही लाता रहा हूँ ?’
‘नहीं लाते हैं तो ले आया कीजिए।’
‘सब्ज़ी लाने का काम मेरा है ?’
‘हाँ-हाँ आपको फुर्सत मिले तब न !’
‘और कौन से काम ? रोज़ आलू खाकर आदमी ऊब जाता है तो दूसरी ‘सब्ज़ियां खाने को जी तो चाहता ही है।’
‘मतलब ?’
‘मतलब साफ़ है।’
‘क्या ?’
‘बस ठीक है। बता तो दिया।’
‘वह आश्चर्य से उसकी ओर देख रहा था।
‘बताओ न…!..... चाय बनाऊँ ?’
‘कोई ज़रूरत नहीं चाय की। पहले बताओ मतलब क्या है तुम्हारा ?’
वह चुप थी। छोटी पतीली में पानी डालकर अंगीठी पर रखने लगी थी कि वह जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। उसकी आँखों में गहराई उतर आई थी। उसका क्रोध ख़ामोशी में बदल गया था या शायद उसके दिमाग में गंभीर शब्दों का संग्रह हो। वह दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए चीखा था – ‘इतने सालों में भी तुम मुझे समझ नहीं पाई, संभालों घर अपना। तेरे जैसे औरत से तो इन्सान बेघर ही भला।’
‘अच्छा बाबा ! चाय बन रही है।’ सुमित्रा ने उठकर उसका कंधा पकड़ना चाहा था, पर उसने धक्का देकर परे धकेल दिया था और कहा था – ‘बात कह तो देती हो, पूरी भी किया करो ।’
‘हाँ, आप तो यूँ ही नाराज़ हो जाते हैं।’
‘अच्छा ! मैं नहीं आऊंगा शाम को।’ कहकर वह घर से निकल गया था।
‘आने पर ही खाना बनेगा। नहीं तो......।’
वह उसकी आवाज़ से दूर जा चुका था।
वह सोच रही है, अब तक तो उसे ज़रूर आ जाना चाहिए था। इतनी देर तो उसने कभी नहीं की थी। दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई है। वह दरवाज़े की तरफ लपकी। बाहर से कोई स्वर सुनाई दिया है। यह स्वर उसका तो नहीं है। उसने कुंडी खोली। दूध वाला लड़का है। वह भीतर आता है। दूध डलवाने के लिए बर्तन लाने वह रसोई में गई है। रसोई की बत्ती जलाई। ‘बाबूजी ?’ दूध वाले लड़के ने पूछा।
‘बाज़ार गए हैं।’ सुमित्रा ने जवाब दिया।
‘खाना आज होटल से खाकर आएंगे ?’ कह कर दूध वाला लड़का हंसा है।
सुमित्रा भी मुस्कराती है, बनावटी सा। दूध देकर लड़का चला गया। सुमित्रा ने आँगन की बत्ती जला दी। उसने निर्णय किया कि खाना बना ही ले। वह न आया तो पड़ा रहेगा बना-बनाया, परंतु वह अकेली नहीं खाएगी। वह सोच रही है, उसकी पसंदीदा सब्ज़ी कौन सी है ? आलू ! वह स्वयं ही मुस्कराई। नहीं, बंदगोभी उसे बहुत पसंद है। पसंद तो उसे आलू-मटर भी हैं, पर मटरों में आलू देखकर वह फिर चिढ़ेगा। बंदगोभी ही ठीक रहेगी। बनेगी भी जल्दी। छोटा सा झोला लेकर वह बाज़ार गई ।
दरवाज़े पर बाहर से कुंडी लगी देख वह चकित हुआ। इस वक्त कहाँ गई वह ? ख़ैर ! उसने कुंडी खोली और दरवाज़ा खोलकर भीतर आँगन में चला गया। सुमित्रा का नाम लेकर आवाज़ दी, जानते हुए भी कि कुंडी तो बाहर से लगी थी। बेकार ही रसोई में झांकता है। और फिर कमरे में कुर्सी पर आकर बैठ गया है। बूटों के तस्मे खोल रहा है।
कितनी ही स्टेटमेंट पूरी करनी थी, उसके अधिकारी को कल चंडीगढ़ मुख्यालय में जाना है। इसलिए उसने उसे तथा कुछ अन्य क्लर्कों को दफ्तर में ओवरटाईम के लिए रोक लिया था । परंतु इतनी देर से आने के कारण वह मन ही मन थोड़ा सा प्रसन्न भी था। सुबह वाला गुस्सा भी पूरा हो गया। परंतु वह गई किधर ?
हाँफता हुआ वही दूध वाला लड़का आता है, बताता है – ‘एक मोटर साईकिल से बीबी जी की टक्कर हो गई, किशोरी सब्जी वाले की दुकान के पास। मुँह से खू बह रहा है। जल्दी चलिए।’
वह किशोरी सब्जी वाले की दुकान की तरफ भागता है, उसके बूटों के तस्मे खुले हुए हैं।
हिन्दी रूपांतर - नीलम शर्मा 'अंशु'



राम सरूप अणखी - ( परिचय )

पंजाब के संगरूर जिले के धौला गांव में जन्में रास सरूप अणखी पंजाबी साहित्य-जगत के जाने-माने लेखक। कृषि कार्य और अध्यापन कार्य के साथ-साथ अब तक उनके अनेकों उपन्यास, काव्य संग्रह, कहानी संग्रह, प्रकाशित हो चुके हैं।
‘सुलगती रात’ उपन्यास के लिए भाषा विभाग, पंजाब द्वारा उन्हें पुरस्कृत किया गया। ‘कोठे खड़ग सिंह’ उपन्यास के लिए 1987 के साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा गुरू नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर द्वारा 1985 के ‘भाई वीर सिंह गल्प पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा चुका है। पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका ‘कहानी पंजाब’ के संपादक। आज ( 15-2-2010) सांय छह बजे उनके आकस्मिक निधन की सूचना जालंधर से चंदन स्वप्निल (उप समाचार संपादक, दैनिक भास्कर) ने दी। उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए प्रस्तुत है उनके द्वारा लिखित एक पंजाबी कहानी का हिन्दी रूपांतर जो कोलकाता से प्रकाशित ‘बात सामयिकी’ पत्रिका के वर्ष 1996 के चतुर्थ अंक में प्रकाशित हुई थी। यह भी महज़ एक संयोग ही कहा जा सकता है कि बीते कल लगभग दस बजे लंदनवासी पंजाबी लेखिका वीना वर्मा से पहली बार फोन पर बात हुई (मेल के ज़रिए संपर्क तो था ही) और बातचीत के दौरान उन्होंने अणखी साहब का उल्लेख करते हुए कहा कि बहुत साल पहले अणखी साहब ने तुम्हारा रेफ्रेंस दिया था। हम दोनों ने उन्हें कल याद किया था और आज पता चलता है कि वे नहीं रहे। उनकी बेटी से फोन पर बात हुई तो उन्होंने बताया कि रविवार रात लगभग सवा दस बजे उन्हें हार्ट अटैक हुआ और अस्पताल ले जाते वक्त रास्ते में ही उनका दिल जवाब दे गया।























कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें