राम में ही रम गया था, दिव्य जिनका मन....
" सौंप जब तुमको दिया इस ज़िंदगी का भार रघुवर,
तब मुझे क्या सोचना है, जीत हो या हार रघुवर,
सिर्फ़ इतनी शक्ति मुझको दो कि मैं अंत:करण से
कर सकूं स्वीकार सब कुछ, जो तुम्हें स्वीकार रघुवर।"
सुप्रितष्ठित साहित्यकार , छात्रवत्सल प्राध्यापक, सहृदय कवि, निस्पृह समाजसेवी, निष्कलंक राजनेता, सम्मोहक वक्ता, भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्म के गहन अध्येता, सहजता एवं शालीनता की साक्षात् मूर्ति आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने बहुआयामी सक्रिय जीवन यात्रा में विविध क्षेत्रों को समृद्ध किया। शिक्षा, साहित्य, समाज, अध्यात्म, राजनीति सभी क्षेत्र उनकी गरिमामयी उपस्थिति से महिमामंडित हुए।
उनका सान्निध्य हर किसी को हर पल समृद्ध करता रहा है। विद्यार्थियों तथा अनुज पीढ़ी के लिए अनवरत स्नेहवृष्टि करने वाली उनकी वात्सल्यपूरित दृष्टि तथा आशीर्वाद प्रदान करने वाली उनकी उत्साहवर्धक वाणी अविस्मरणीय है।
आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के व्यक्तित्व की पहचान के प्रमुख बिंदु रहे हैं : काव्य के प्रति आत्मीय अनुराग, राष्ट्र एवं राष्ट्रभाषा के प्रति अपार प्रेम, स्वीकृत कार्य के प्रति पूर्ण समर्पण तथा अपने आराध्य भगवान, श्रीराम के पर्ति अनन्य निष्ठा। दायित्व चाहे स्वेच्छा से स्वीकार किया गया हो या दबाववश उन्हें सौंपा गया हो, ग्रहण करने के बाद उस काम को प्रभु द्वारा प्रदत्त मानकर पूरी निष्ठा के साथ जुट जाना शास्त्री के स्वभाव का अंग रहा है उनकी स्वरचित पंक्तियां हैं -
"जो काम प्रुभु ने दिया, नतमस्तक उसे लिया।
जितना कर सका किया, इस तरह अब तक जिया।।"
और यह भी -
"तुम्हीं काम देते हो स्वामी, तुम्हीं उसे पूरा करते हो।"
" मृत्यु, तुम्हारा मुझको क्या भय जब आना हो आओ,
जर्जर वस्त्र बदल कर मुझको नया वस्त्र पहनाओ।
झेल चुका ये नाते-रिश्ते, सुख-दु:ख का छलनाएं
राम मिलन संभव हो जिसमें, ऐसा रूप दिखाओ।।"
(साभार - डॉ. प्रेम शंकर त्रिपाठी के आलेख से)
संस्कृति सरोकार परिवार की ओर से उन्हें शत् शत् नमन।
प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'
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